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त्रैमासिक - इक्कीसवां संस्करण अक्टूबर, 2016
अनुक्रमणिका हमारा संस्थान
  1. ‘‘जियो-मनरेगा’’ कार्यक्रम अंतर्गत इसरो की मोबाईल एप्लीकेशन ‘‘भुवन-मनरेगा‘‘ विषय पर जिला एवं जनपद स्तरीय प्रशिक्षण का आयोजन
  2. अपनी बात ....
  3. मुख्यमंत्री आवास मिशन
  4. चोल-वंश के समय (850 ई. से 1279 ई.) में स्थानीय शासन व्यवस्था
  5. वर्तमान समय में जेन्डर की संवेदनशीलता

‘‘जियो-मनरेगा’’ कार्यक्रम अंतर्गत इसरो की मोबाईल एप्लीकेशन ‘‘भुवन-मनरेगा‘‘ विषय पर जिला एवं जनपद स्तरीय प्रशिक्षण का आयोजन

भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गांरटी योजना के अन्तर्गत जिओ-मनरेगा कार्यक्रम चालू किया गया है जिसे मनरेगा एवं इसरो के साथ मिलकर तैयार किया गया है इसके अन्तर्गत ग्रामीण स्तर पर पंचायत द्वारा तैयार की गई परिसम्पतियों (जैसे -कुएॅ, तालाब, सडकें, वृक्षारोपण, भवन आदि ) का फोटो निर्मित परिसम्पति के पास जाकर खींचना है।

यह कार्य रोजगार सहायक द्वारा किया जायेगा तथा इसरो द्वारा तैयार किये गये मोबाइल एप्लीकेशन “भुवन-मनरेगा” पर अपलोड करना है जिससे यह

परिसम्पति इसरो के मानचित्र में सभी को दिखाई देने लगेगी। इससे लाभ यह होगा की हम देश में मनरेगा द्वारा निर्मित समस्त परिसम्पतियांे की फोटो सहित विस्तृत जानकारी एक ही पोर्टल पर देख सकेगें। इस प्रकार यह मोबाइल एप्लीकेशन बहुत उपयोगी साबित होगा। मध्यप्रदेश के 51 जिलों में से 47 जिलों के जिला एवं जनपद स्तरीय जीआईएस नोडल अधिकारियों के प्रशिक्षण के 6 सत्र महात्मा गांधी राज्य ग्रामीण विकास एवं पंचायतराज संस्थान जबलपुर तथा 1 सत्र ई.टी.सी. भोपाल में संपन्न कराये गये।

  अनुक्रमणिका  
मुख्यमंत्री आवास मिशन
अपनी बात .....

‘‘पहल’’ का इक्कीसवां संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। मध्यप्रदेश में वर्ष 1993 से ‘‘मध्यप्रदेश पंचायतराज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम’’ के प्रावधानों के अनुसार पंचायतराज संस्थाएं कार्य कर रहीं हैं। संविधान के तिहत्तरवें संशोधन और वर्तमान में प्रचलित मध्यप्रदेश के पंचायतराज कानून में उल्लेखित व्यवस्थाओं का आधार ऐतिहासिक रहा है। हमारी पंचायतराज व्यवस्था अत्यन्त प्राचीन और लोकपोयोगी रहीं हैं। जहां तक की राजाओं के शासित राज्यों में भी स्थानीय शासन व्यवस्था का प्रचलन दिखाई देता है। इसी क्रम में ‘‘चोल-वंश के समय (850 ई. से 1279 ई.) में स्थानीय शासन व्यवस्था’’ लेख के माध्यम से चोल राजाओं के समय उनकी स्थानीय शासन व्यवस्था को जान कर एक ओर हम उस समय की स्थानीय शासन व्यवस्था, सभा, समिति, ग्राम सभा के महत्व और कामकाज के तरीके से परिचित हो सकेगें वहीं दूसरी ओर हम वर्तमान में चल रही स्थानीय शासन व्यवस्था विशेष रूप से पंचायतराज व्यवस्था और ग्राम सभा के महत्व पर समझ स्पष्ट कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त ’’वर्तमान समय में जेन्डर की संवेदनशीलता’’ विषय भी एक आलेख प्रस्तुत किया गया है। जो कि हमारे समाज में नारियों पर हो रहे अत्याचार एवं स्त्री पुरूष के भेदभाव पर प्रस्तुत है। साथ ही ‘‘मुख्यमंत्री आवास मिशन’’ आलेख के माध्यम से योजना का लाभ हितग्राहियों तक पहुंचाने की कोशिश की गई है, हमें पूर्ण विश्वास है कि आपको ‘पहल’ का यह संस्करण रूचिकर लगेगा।
शुभकामनाओं सहित।

संजय कुमार सराफ
संचालक

भारत सरकार द्वारा आवास हेतु इंदिरागांधी आवास योजना (आई.ए.वाय) के नाम से एक महत्वपूर्ण योजना संचालित की जा रही है। आवास एक आवश्यक विषय है, इसके बिना जीवन निर्वाहन बहुत मुश्किल होता है। आई.ए.वाय. से म.प्र. को लगभग 70 हजार से 1 लाख तक आवासों का आबंटन प्रति वर्ष होता रहा है। जो हमारी आवासीय आवश्यकताओं से बहुत कम है। इसके द्वारा म.प्र. की आवश्यकता पूर्ति संभव नहीं थी, क्योंकि म.प्र. में लगभग 38 लाख परिवार आवासहीन है या कच्चे मकानों में जीवनयापन कर रहे है। अतः आई.ए.वाय. से प्राप्त होने वाला आबंटन हमारी आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकता था।

इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु मुख्यमंत्री द्वारा 2010 में विधानसभा में मुख्यमंत्री आवास मिशन की शुरूआत की। यह योजना 2011 में लागू की गई। वर्तमान में यह योजना सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में लागू है। यह एक अनुदान सह ंऋण योजना है। शासन के इस कार्य में 11 राष्ट्रीयकृत बैंकों 6 सरकारी बैंकों व 3 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों से एम.ओ.यू. साईन किये जा चुके हैं।

इस योजना में 2 लाख रूपये वार्षिक आय तथा 1 हैक्टेयर से अधिक भूमि नहीं होना चाहिए तथा हितग्राही के पास स्वयं का भू-अधिकार प्रमाणपत्र होना आवश्यक है। यदि भू-अधिकार प्रमाण पत्र नहीं है तो एक पट्टा तहसीलदार, सरपंच व सचिव द्वारा जारी किया जा सकता है। इस हेतु आवेदन पंचायत में दिया जाता है, तत्पश्चात 3 सदस्यों की समिति जिसमें पीसीओ, पटवारी व सचिव होते हैं, जिनके द्वारा परीक्षण किया जाता है।

तत्पश्चात सूची ग्राम सभा के समक्ष प्रस्तुत की जाती है। ग्राम सभा के अनुमोदन के पश्चात बैंकों को प्रेषित किये जाते है।

इस योजना में अभी 1,20,000 रूपये लागत मान्य की गई है। जिसमें 20,000 रूपये हितग्राही का अंशदान, 50,000 रूपये शासन का अनुदान एवं 50,000 रूपये बैंक ऋण है। इसमें 225 वर्गमीटर पर 1 कमरा, सुलभ शौचालय, धुंआ रहित चूल्हा आदि बनाया जाना अनिवार्य है एवं यह ऋण की अवधि 10, 12 या 15 वर्ष के लिए दिया जाता है।




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एन.के.पाठक,
संकाय सदस्य
‘‘चोल-वंश के समय (850 ई. से 1279 ई.) में स्थानीय शासन व्यवस्था’’

लेख की प्रासंगिता
ग्रामीण विकास के लिए वर्तमान में लोगों की सहभागिता से स्थानीय संस्थाओं के माध्यम से अनेकानेक प्रयास किये जा रहे हैं। ग्रामों के चहुंमुखी विकास और उत्थान के लिए पंचायतीराज संस्थाएं और उनके प्रतिनिधियों और शासन के अधिकारी, कर्मचारियों से सूझ-बूझ के साथ अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की अपेक्षा की जाती है। पंचायतराज संस्थाओं के सुदृढ़िकरण के इन प्रयासों में मील का पत्थर बना संविधान का तिहत्तरवां संशोधन। यह संशोधन वर्ष 1992 में किया गया था। संविधान के इस संशोधन के किये जाने के बाद से हमारी पंचायतराज प्रणाली को मजबूती मिली है।

मध्यप्रदेश में वर्ष 1993 से ‘‘मध्यप्रदेश पंचायतराज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम’’ के प्रावधानों के अनुसार पंचायतराज संस्थाएं कार्य कर रहीं हैं। संविधान के तिहत्तरवें संशोधन और वर्तमान में प्रचलित मध्यप्रदेश के पंचायतराज कानून में उल्लेखित व्यवस्थाओं का आधार ऐतिहासिक रहा है।

इतिहास पर द्रष्टि डालें तो हमारी पंचायतराज व्यवस्था अत्यन्त प्राचीन और लोकपोयोगी रहीं हैं। जहां तक की राजाओं के शासित राज्यों में भी स्थानीय शासन व्यवस्था का प्रचलन दिखाई देता है। इसी क्रम में ‘‘चोल-वंश के समय (850 ई. से 1279 ई.) में स्थानीय शासन व्यवस्था’’ कैसी थी ? इस जानने के उद्देष्य से इस लेख को तैयार किया गया है।

चोल राजाओं के समय उनकी स्थानीय शासन व्यवस्था को जान कर एक ओर हम उस समय की स्थानीय शासन व्यवस्था, सभा, समिति, ग्राम सभा के महत्व और कामकाज के तरीके से परिचित हो सकेगें वहीं दूसरी ओर हम वर्तमान में चल रही स्थानीय शासन व्यवस्था विशेष रूप से पंचायतराज व्यवस्था और ग्राम सभा के महत्व पर समझ स्पष्ट कर सकते हैं।

साम्राज्य का विभाजन

  • चोल राजाओं का राज 850 ई. से 1279 ई. तक रहा।
  • सम्पूर्ण साम्राज्य अनेक मण्डलों (प्रान्तों) में विभक्त था।
  • प्रत्येक मण्डल में अनेक कोट्टम (बड़े प्रदेश) होते थे। मण्डलों को मण्डलम् भी कहा जाता था।
  • मण्डल का शासन राजा द्वारा नियुक्त वायसराय के द्वारा होता था। वायसराय राजकुमार, राजवंशीय अथवा कोई बड़ा सामान्त होता था। साम्राज्य के अन्यान्य विभागों में भी राजा प्रशासन नियुक्त करता था।
  • प्रत्येक मण्डल में अनेक बड़े प्रदेश होते थे। जिन्हें कोट्टम या बलनाडु कहा जाता था। एक प्रकार से मण्डल कमिशनरी जैसे होते थे। प्रत्येक कोट्टम अनेक नाडुओं या जिलों में विभक्त था।
  • नाडु या जिले में में अनेक नगर और ग्राम होते थे।
  • नगर को ‘‘नगरम’’ या ‘‘पोर’’ कहा जाता था।
  • ग्रामों के समूहों के स्तर पर कुर्रम होते थे जिन्हें तनियूर या तंकुरम भी कहा जाता था।
  • ग्राम दो प्रकार के होते थे:
  • ग्राम (उर) जो कि साधारण प्रकार के ग्राम होते थे।
  • सम्राट द्वारा ब्राह्मणों को दान में दिये गये ग्राम जिन्हें ‘‘चतुर्वेद्मिंगलम्’’ कहते थे।

जनता की सहभागिता से गठिन की गई सभाऐं

  • ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक इकाई के प्रशासन में वहाॅं की जनता का भी सहयोग लिया जाता था। सम्राट की शक्ति अनियंत्रित थी परन्तु उन्हें स्थानीय नियमों और पंरपराओं पर ध्यान रखना पड़ता था।
  • मण्डल से लेकर ग्राम तक स्थानीय सभायें होती थीं।
  • नगर के व्यापारियों की सभा का नाम ‘‘नगस्तार’’ या ‘‘श्रेणी’’ था।
  • शिल्पियों की सभा भी होती थी जिन्हें ‘‘पूग’’ कहा जाता था।
  • व्यवसायियों और शिल्पियों की अपनी सभायें थीं। इन्हें ‘‘श्रेणी’’ और ‘‘पूग’’ कहते थे। प्रशासन में इनका भी सहयोग लिया जाता था।
  • नाडु की सभा का नाम ‘‘नाट्टर’’ और नगर की सभा का ‘‘नगस्तार’’ था।
  • साधारण प्रकार के ग्राम (उर) में ‘‘उरार’’ नामक सभा होती थी।
  • सम्राट द्वारा ब्राह्मणों को दान में दिये गये ग्राम ‘‘चतुर्वेद्मिंगलम्’’ का प्रबन्ध ‘‘सभा’’ के द्वारा होता था।
  • ब्राम्हणों की स्त्रियों की भी सभा होती थी जिन्हें सभा और महासभा कहते थे।

समितियों के माध्यम से स्थानीय शासन

  • चोल-शासन की एक प्रमुख विशेषता उसके ग्रामों का स्थानीय शासन था।
  • ग्राम संस्थाओं-उरदार और सभा- कार्य-प्रणाली जनतन्त्रात्मक थी।
  • ये संस्थायें अपनी अनेक समितियों के द्वारा स्थानीय शासन चलाती थीं।
  • इन समितियों को ‘‘बेरियम’’ कहते थे।
  • प्रत्येक समिति में निर्वाचित सदस्य (गणम्) होते थे।
  • निर्वाचन के लिये ग्राम बहुधा 30 वार्डो में विभक्त किया जाता था।
  • निर्वाचन सदस्यों से ही ग्राम की स्थायी समितियों का गठन होता था। ग्राम की निम्न स्थाई समितियां और अनेक प्रशासन-समितियां बनाई जाती थीं:-
  • -सामान्य प्रबंध समिति ‘‘पंच वार वरियम’’ साधारण प्रबन्ध करती थी।
  • -उपवन-समिति
  • -तड़ाग-समिति (ऐरि वरियम)
  • -कृषि-समिति
  • -न्याय समिति
  • इसके अतिरिक्त निम्न समितियों भी बनाई जाती थीं:-
  • -स्वर्ण के प्रबंध के लिए ‘‘पोण वरियम’’ समिति
  • -सिंचाई समिति
  • -लेखा जोखा समिति
  • -शिक्षा समिति
  • -मार्ग समिति
  • -देवालय समिति

समितियों के सदस्यों का निर्वाचन

  • समिति के सदस्यों का निर्वाचन एक वर्ष के लिए होता था।
  • ग्राम के प्रत्येक भाग के लिए एक व्यक्ति चुना जाता था। सामान्यतः एक ग्राम में तीन व्यक्तियोें को तीन समिति सदस्य के लिए निर्वाचित किया जाता था।
  • ग्राम 30 वार्डो में विभक्त होते थे इस मान से संक सरवारियम समिति में 12 सदस्य, उद्यान समिति में 12 सदस्य और तड़ाग समिति में 6 सदस्य चुन लिये जाते थे।
  • समितियों और सदस्यों की संख्या प्रत्येक गांव के लिए अगल-अलग होती थी।

समिति सदस्यों की योग्यताएं

निर्वाचन में खड़े होने वाले उम्मीदवार में निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक था:-

  1. 35 वर्ष से लेकर 70 वर्ष की आयु।
  2. वेदों एवं अन्य ब्राह्मण ग्रन्थों का ज्ञान अथवा 1/3 वेलि से अधिक भूमि का स्वामित्व और एक वेद तथा भाष्य का ज्ञान।
  3. 1/4 वेलि से अधिक भूमि का स्वामित्व। 1/4 वेनले का मान आधा एकड़ होता था।
  4. निजी घर में निवास।

समिति सदस्यों की निर्योग्यताएं

निम्नलिखित आधारों पर व्यक्ति निर्वाचन के लिये अनुपयुक्त समझा जाता था:-

  1. यदि वह विगत 3 वर्षो से किसी समिति का सदस्य रहा हो।
  2. यदि समिति-सदस्य के रूप में अपने विभाग के आय-व्यय का ब्यौरा न दे सका हो।
  3. यदि वह व्यभिचार अथवा किसी अन्य अपराध का दोषी हो।
  4. यदि वह चोरी के अपराध में अभियुक्त घोषित हुआ हो।
  5. यदि वह शूद्रों के सम्पर्क से अशुद्ध हो गया हो।

समिति सदस्यों की निर्वाचन प्रक्रिया

  • निर्वाचन ‘‘लाट’’ (Lot System) के द्वारा होता था।
  • सभी उम्मीदवारों के नाम अलग-अलग पत्तियों पर लिखे जाते थे।
  • वे पत्तियां एक बर्तन में डाल कर खूब अच्छी तरह से हिला-डुलाकर मिला दी जाती थीं।
  • इसके पश्चात कोई बालक निश्चित संख्या में पत्तियों को निकालता था।
  • जिन लोगों के नामों की पत्तियां निकल आती थीं वे निर्वाचित समझे जाते थे।
  • गांव के पुरोहित या संयोजक सफलता की घोषणा करता था।

गांव ‘‘उर’’ की साधारण सभा

  • ग्राम सभा को स्वायत्त शासन प्राप्त था।
  • ग्राम सभा के आन्तरिक कार्यो में हस्ताक्षेप नहीं किया जाता था।
  • ग्राम में काम करवाने के पूर्व ग्राम सभा से अनुमोदन लेना जरूरी होता था।
  • गांव ‘‘उर की साधारण सभा की बैठकें मंदिर, नगर के हाल, इमली या कोई वृक्ष के नीचे आयोजित की जातीं थी।

ग्राम सभा पर नियंत्रण

  • राज्य के द्वारा नियुक्त अधिकारी ग्राम सभा के कामकाज पर दृष्टि रखते थे।
  • ग्राम सभा द्वारा अनियमितता, अवैधानिकता किये जाने की सूचना अधिकारियों द्वारा राजा को दी जाती थी।
  • आवश्यकता पड़ने पर ग्राम सभा के विरूद्ध कार्यवाही राजा के द्वारा की जाती थी। जैसे: मंदिर की आय के दुरूपयोग पर ग्राम पर जुर्माना लगाया जाना, भूमि कर जमा न करने के अपराध में राजा द्वारा कारागार में डाल दिया जाता था।
  • मृत्यु दंड जैसे विषेष प्रकार के निर्णय लेने के पहले ग्राम सभा को राजा से पूर्वाज्ञा लेना जरूरी होता था।
  • आय-व्यय का हिसाब-किताब नियत समय पर ‘‘गणक’’ जाॅंच करते थे।
  • गबन, बेईमानी पर कठोर दंड का प्रावधान था।
  • दो ग्राम सभाओं के के परस्पर विवाद उठने पर राज्य हस्तक्षेप करता था।

आय के स्त्रोत, कर आदि

  • गावं के भूमि धारियों पर भूमि कर ‘‘कुडिमै’’ उपज का एक तिहाई के मान से लगाया जाता था। कर का भुगतान करदाताओं द्वारा धन या अनाज या दोनों के रूप में किया जा सकता था।
  • करधों के लिए ‘‘तरि इरिय’’ कर
  • कोल्हुओं के लिए ‘‘शेक्ककेरयी’’ कर
  • व्यापारियों पर ‘‘सेट्टिरयी’’ कर
  • सुनारों के लिए ‘‘तत्तार पाट्टम’’ कर
  • पशुओं, तालाबों, नदियों के लिए ‘‘ओलक्कुनीर पाट्टम’’ कर
  • नमक के लिए ‘‘उप्पायम्’’ कर
  • चुंगी ‘‘बलि आयम्’’ कर
  • बाटों के लिए ‘‘इड़ै वरि’’ कर
  • बाजारों के लिए ‘‘अंगाडि पाट्टम’’ कर
  • इस प्रकार से व्यवसाय, सुनार, बुनकर, आदि से कर वसूला जाता था।
  • खान, वन, नदि, बाजार आदि से कर उगाहा जाता था।
  • श्रमिकों एवं अन्य से बेगार ली जाती थी।

ग्राम सभाओं के कार्य

ग्राम सभाओं के विविध कार्य थे जैसे:-

  • खेती की सिंचाई के लिये तड़ागों, नहरों और कूपों इत्यादि का प्रबन्ध
  • भूमि कर एकत्र करना और राजकोष में जमा करना
  • जहां से भूमि कर नहीं मिलता था वहां की भूमि का अधिग्रहण सभा द्वारा किया जाता था।
  • ग्राम के मुकदमे तय करना
  • मन्दिरों का निर्माण, जीणोद्धार, व्यय का उचित प्रबंध करना
  • बाजार, क्रय-विक्रय के नियम बनाना
  • सहायता कोष - अकाल, बाढ़, दैवी विपत्तियों के समय सहायता देना
  • सड़कों का निर्माण और देखरेख
  • सार्वजनिक कार्यो के लिये लोगों से बेगार लेना
  • पाठशाला की स्थापना करना
  • चिकित्सालय की स्थापना करना
  • स्वास्थ्य नियमों का पालन करवाना
  • गांव का सदाचरण को सम्हालना
  • मठों के जरिये सभा द्वारा गांव के बच्चों को संस्कृत एवं तमिल भाषाओं की शिक्षा दी जाती थी।
  • जंगल साफ कर कृषि भूमि तैयार करना
  • धार्मिक न्यास के रूप में भूमि अथवा द्रव्य का दान स्वीकार करना

सन्दर्भ स्त्रोत:

  1. प्राचीन भारत का इतिहास (250 ई.-1200 ई.), डाॅ. विमल चन्द्र पाण्डेय, प्रकाशक: एस.चन्द एण्ड कम्पनी लि., 7361, रामनगर, नई दिल्ली - 110 055, प्रथम संस्करण, वर्ष 2003, पंचम खण्ड (दक्षिणी भारत), अध्याय 33 चोल वंश पृ0 क्रमांक 359 - 411
  2. प्राचीन भारत का इतिहास, डाॅ. रमाशंकर त्रिपाठी, प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, वर्ष 1998, अध्याय 18 सुदूर ‘‘दक्षिण के राज्य’’ प्रकरण - 3 चोड़ राजकुल, पृ0 क्रमांक 323 - 340
  3. प्राचीन भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, प्रोफेसर राधाकृष्ण चैधरी, प्रकाशक: भारती भवन, पटना, वर्ष 1993, अध्याय 16 सुदूर ‘‘दक्षिण के प्रारंभिक इतिहास का सिंहावलोकन’’, चोल वंश (850-1200 ई.), पृ0 क्रमांक 429 - 440



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डाॅ. संजय राजपूत,
संकाय सदस्य
वर्तमान समय में जेन्डर की संवेदनशीलता

हमारे यहाँ शास्त्रों में कहा गया है कि “यत्र पूजयन्ते नारी तत्र रमयंति देवता” अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है। प्राचीन काल से ही भारत मे नारी को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। हमारे यहां नारी की विभिन्न रुपों में पूजा प्राचीन काल से ही हो रही है, माँ दुर्गा, माता लक्ष्मी व माँ शारदा (सरस्वती) के रुपों में नारी सदैव पूज्यनीय रही है, जहाॅ नारी एक ओर शर्म व लज्जा की प्रतिमूर्ति है, वही दूसरी ओर माॅ काली व माॅ चण्डी के रुपो में दुष्टों का संहार करने वाली भी है।

प्राचीन काल में सती अनसुइया, तारा, मन्दौदरी, द्रोपदी व गार्गी वह नाम है जिन्होंने नारी जाति का ही नही वरन संपूर्ण मानव जाति को गौरवान्वित किया है, कित्तूर की रानी चैत्रमा, बेगम हजरतमाल, चान्दबीबी, रजिया सुल्तान, रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, इत्यादि ने मध्ययुगीन काल में भी नारी का गौरव बढाया है। रानी पद्मिनी का जौहर आज तक नही भूले है, आधुनिक युग में भगिनी निवेदिता, कस्तूरबा गांधी, सरोजनी नायडू, सावित्री बाई फूले, किरण बेदी, इन्दिरा गांधी, कल्पना चावला, आदि ने नारी को समाज में प्रतिस्थापित किया है नारी विद्या, धन और शक्ति की देवी है।

किन्तु मध्ययुगीन काल में नारी को भोग की वस्तु माना जाने लगा, उसको घर की चौखट तक लांघने का अधिकार भी नही था यही वजह है कि नारी को हम दोयम दर्जे का नागरिक व पैरों की जूती तक मानने लगे थे उसे व्यापार की वस्तु माना जाने लगा उसकी खरीददारी गुलामों की तरह बोली लगाकर की जाती थी आज भी अनेक स्थानों पर महिलाओं पर अत्याचार हो रहे है आज भी महिलाओं के मंदिर प्रवेश, मस्जिद प्रवेश को लेकर महिलाओं द्वारा आंदोलन चलाये जा रहे है, महिलाओं के ऊपर होने वाले अत्याचार संपूर्ण मानव जाति पर कलंक है जिन्हे मिटाना होगा, इन्ही सभी बातों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान समय में “जेन्डर संवेदनशीलता” का विचार किया जाने लगा।

संवेदनशीलता से तात्पर्य यह है कि आज समाज महिलाओं के अच्छे व बुरे के बारे में सोचे, संवेदनशीलता का संबंध हृदय से है, आत्मा से है, संवेदनशीलता से कमजोर के घाव भरे जा सकते है वह स्वयं को पवित्र करती है तथा वेदना को सहलाती है इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए प्रशासन व सरकार को महिलाओं के प्रति संवेदनशील होना अत्यावश्यक है इस हेतु महिलाओं की सत्ता, राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार आदि में समान रुप से भागीदारी होना चाहिए। यही कारण है कि प्रदेश सरकार ने महिलाओं को नगरीय निकायों व पंचायत राज संस्थाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया है।

जेन्डर क्या है- जेन्डर को सामाजिक रुप से सीखे गए उस व्यवहार प्रतिमानों व अपेक्षाओं से परिभाषित किया जाता है, जो पुरुष व महिलाओं से संबंधित है।

लिंग के आधार पर किया गया वर्गीकरण जेन्डर नही है, पुरुषपन व स्त्रीपन जैविक तथ्य है जबकि पुरुषत्व व स्त्रीत्व सांस्कृतिक रुप से सीखा गया अनुभव के आधार पर बना गुण है जैसे जैसे संस्कृति में बदलाव आता है पुरुषत्व व स्त्रीत्व के प्रतिमान भी बदलते रहते है धीरे-धीरे यह सामान्य व्यवहार में शामिल हो जाते है पुरुषत्व व स्त्रीत्व के प्रतिमान सार्वभौमिक नही है भौगौलिक व सांस्कृतिक आधार पर इसमें बदलाव आता रहता है उदाहरण के लिए उत्तर भारत में अनुसूचित जाति की अशिक्षित विधवा महिला अपने व अपने बच्चों के भरण पोषण के लिए खेतों में मजदूरी कर सकती है किन्तु इसी क्षेत्र की अशिक्षित ब्राम्हण विधवा घर के बाहर तक नही निकल सकती है ताकि वह अपने परिवार का भरण पोषण मजदूरी द्वारा कर सके। पुरुषों द्वारा किये गए कार्य का मूल्यांकन, महिलाओं द्वारा उसी प्रकार के कार्य की अपेक्षा ज्यादा होता है वास्तविकता में महिला द्वारा घर की चार दिवारियों में जो घरेलू कार्य किया जाता है उसका तो कभी भी आर्थिक मूल्यांकन किया ही नही गया है वर्तमान में कामकाजी महिलाए घर व बाहर दोनो तरफ की जिम्मेदारी बाखूबी सम्हाल रही है।

शिक्षा के क्षेत्र, मीडिया, बाजार, चिकित्सकीय व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, राजनीति, धर्म या संस्कृति ही क्यों न हो सभी जगह जेन्डर जन्य विभेद को बढावा दिया जाता है।

लिंग जीवाश्म आधारित है जबकि जेन्डर सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश आधारित है, लिंग प्रकृति का जनित है जबकि जेन्डर विविध व विभिन्न होते है, लिंग व्यक्तिक होता है जबकि जेन्डर प्रक्रिया या व्यवस्थागत होता है, लिंग का कोई पदानुक्रम नही है जबकि जेन्डर पदाक्रमानुसार होता है, लिंग परिवर्तनशील नही है जबकि जेन्डर में समय उपरांत परिवर्तन हो सकते है।

हमारी सामाजिक व्यवस्था जेन्डर आधारित है हम सभी इसी व्यवस्था से जुडे हुए है हमारी मानसिकता इसी व्यवस्था से संरचित होती है इस व्यवस्था में पुरुष और महिलाओं में दर्जा तय होता है जैविक व नैसर्गिक आधार पर पुरुषों व महिलाओं के बीच कार्य का बटवारा किया गया है इसी आधार पर सामाजिक व्यवस्था बनाई गई है। सामाजिक मान्यता यह है कि पुरुष शक्तिशाली और महिलाएं कमजोर होती है श्रद्धा व परम्पराओं की बात करें तो पुरुष तार्किक व महिलाएं भावनात्मक होती है।

हमारा समाज पितृ सत्ता, समाज का अनुयायी रहा है यही कारण है कि निर्णय लेने के मामले में पुरुष की ही सुनी जाती है उसे ही निर्णय लेने का अधिकार है जब तक यह मनोवृत्ति, मानसिकता बदलेगी नही तब तक पुरुषों का ही वर्चस्व कायम रहेगा। इसमें परिवर्तन के लिए हमें समाज में मातृसत्ता को प्रतिस्थापित करने वाले मानदंडो का प्रचार व विस्तार करने की आवश्यकता है तथा इन्हे सामाजिक व कानूनी रुप से मान्यता भी मिलनी चाहिए।

सामाजिक नियंत्रण वह प्रकिया है, जिसके अन्र्तगत समाज अपने प्रतिमानों व अपेक्षाओं को व्यक्ति कैसे पूरा करे, सुनिश्चित करता है, इस सामाजिक प्रकिया द्वारा समुदाय अपने सदस्यों से निर्धारित मूल्यों व प्रतिमानों का अनुपालन करवाता है, सामाजिक नियंत्रण अनेकानेक सामाजिक संस्थाओं, नियमों, कानूनों, रीति रिवाजों व संस्कृति द्वारा सुुनिश्चित किया जाता है। हर समाज की अपनी सामाजिक विश्वास, मूल्य व प्रकियाए होती है सामाजिक विश्वास, सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक विधियों के अभिन्न अंग है, सामाजिक व्यवहार से पैदा सामाजिक विश्वास ने स्त्रीयों के साथ भेदभाव आधारित सोच दी है, औरतो को इन विश्वासों के कारण ही बडी मात्रा में हिंसा झेलनी पडती है, इन्ही विश्वासों के कारण महिलाओ को अवसरों से वंचित कर दिया जाता है।

पुरुष व महिला के लिए जेण्डर प्रतिमानों व सामाजिक मूल्यों के आधार पर उनका व्यवहार, उनकी भूमिका निर्धारित होती है। भारतीय समाज में महिलाओं व पुरुषों की भूमिका निम्नानुसार निर्धारित की गई है। महिला की भूमिका प्रमुखतः (1) पति की आवश्यकताओं को पूरा करने वाली (2) सन्तानोत्पादन करने वाली (3) घर के मैनेजर की भूमिका (4) कामकाजी भूमिका (5) रिश्तेदारी मे भूमिका (6) समुदाय में भूमिका

जबकि पुरुष की भूमिका (1) मुखिया की भूमिका (2) अभिभावक व सुरक्षा देने वाले की भूमिका (3) परिवार का सम्मान बनाने में भूमिका (4) परिवार, समुदाय व रिश्तेदारी में निर्णायक की भूमिका (5) देश की सेवा करने में भूमिका (6) राजनीति में सक्रियता (7) व्यापार, उद्योग, धंधे में सक्रियता।

(1) हमारे जितने भी काम व दायित्व है, वह हमारी सीख व सामाजिकरण का परिणाम है। (2) हम कार्य-कौशल जन्म से या प्रकृति द्वारा नही पाते है वरन इन्हे हम सीखते है (3) पुरुष व महिला को विभिन्न प्रकार के काम करते हुए हम बचपन से देखते है, इससे पुरुष व महिला के कामों के प्रति हमारे दिमाग में एक छवि निर्मित हो जाती है।

बच्चों को सीखाने के अवसर उनके रुचि के अनुसार नही होते वह उनके लिंग के आधार पर होते है।

जेन्डर आधारित जो पुरुष व स्त्री के बीच काम का बटवारा है वह पक्षपात पूर्ण है, एकांगी है, जिसमें महिलाओं के काम का कोई न तो महत्व है न मूल्य आंका जाता है। यह जेन्डर आधारित विभेदीकरण है। आंकलनों के अनुसार यह पाया गया है कि भारत के 33 प्रतिशत परिवार महिलाओं की आमदनी से पल रहे है और वह परिवार भी समसंख्यक है जिनमें महिलाओं का आप-उपार्जन जिन्दा रहने के लिए निहायत जरुरी है तब भी महिलाओं की बहुत बडी संख्या 52 प्रतिशत रक्त अल्पता जनित अनेक रोगों की शिकार है।

अंत में उपरोक्त सभी बातो को ध्यान मे रखते हुए यह आवश्यक है कि हमें अपनी सोच बदलने की आवश्यकता है, पुरुष प्रधान समाज जब तक पुरुष-महिला समता समाज में परिवर्तित नही होगा, तब तक इस प्रकार के विभेद जारी रहेगें। सामाजिक व कानूनी रुप से महिलाओं के सशक्तिकरण के सार्थक प्रयास किये जाने चाहिए। इस हेतु प्रशासन व सरकार में मानवीयता व संवेदनशीलता का होना बहुत जरुरी है। प्रशासन, समाज व कानून को कमजोर वर्ग गरीब व महिलाओं के प्रति अधिक सहानुभूति पूर्ण रवैया अपनाना चाहिए। संवेदनशील प्रशासन सदैव जन सेवा के लिए समर्पित रहता है।




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